लेखन ही मेरी आवाज है. मैं खुद को ऐसे ही अभिव्यक्त करता हूँ. कुछ भी अजीब और असहज घटता है मेरे आस-पास तो मैं चुप नहीं रह पता. कोई ख़ुशी उत्पन्न होती है मेरे आस-पास तो मैं उसे सब लोगों के साथ बांटना चाहता हूँ. याफिर समाज विरोधी लोक-अहित करने वालों को देखता हूँ तो असहज होकर कुछ करने का मन करता है. तो फिर लिखता हूँ. अपने लिए देश के लिए.
खेलों मैं जिस प्रकार गंदे खेल खेले गए यह जग ज़ाहिर है. अब जबकि राष्ट्रमंडल खेलों का भव्य समापन हो चूका है तो अंतर्मन से आवाज़ आती है कि क्या आयोजन से जुडे लोगों के घिनोने खेल का भी समापन होगा?? क्या जिम्मेदारियां तय की जायेंगी, जो लोग दोषी पाए जायेंगे क्या उनपर कोई कानूनी कार्रवाई हो पायेगी. या धन बल और राजबाल के सहारे या फिर अपने रसूखों के बल पर दोषी अधिकारी बच निकालने मैं सफल हो जायेंगे. क्या जवाबदेही तय की जा पायेगी?
कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि बारात की विदाई के साथ ही सब कुछ विदा कर दिया जायेगा. सब कुछ भुला दिया जायेगा... फिर से दोहराने के लिए. हम एक और मौका तो नहीं देंगे?
आखिर कौन देगा इन प्रश्नों के उत्तर? जनता? सभ्य समाज? नेतागण? सरकारी तंत्र? या राजनैतिक दल. हम किससे उम्मीद कर सकते हैं? किसी से नहीं क्यूंकि सभी अपनी दबी पूंछ निकालने मैं लगे हैं. क्यूंकि इस हमाम मैं सभी नंगे हैं. कोई किसी पर कीचड नहीं उछाल सकता. सबको सबकी पोल पट्टी मालूम हैं. कोई भी किसी के खिलाफ अपना मूंह नहीं खोलेगा... सच तो यही है.पर मुझे पीड़ा होती है. समाज की खून पसीने कि गढ़ी कमी का मामला है भाई. मैं चुप नहीं बैठूँगा. मैं कुछ नहीं कर सकता जानता हूँ. एक आम आदमी आवाज उठाने के सिवाय कर भी क्या सकता है? उसकी आवाज़ तो होती ही है दबा दिए जाने के लिए. पर मैं चुप नहीं बैठने वाला. मैं लिखूंगा. लिखता रहूँगा.
Thursday, October 14, 2010
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बहुत अच्छी प्रस्तुति .
ReplyDeleteश्री दुर्गाष्टमी की बधाई !!!
सब विदा ही समझिये...बंदरबांट तो हो ही चुकी है..अब तो लकीर पीटने वाली बात है.
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