Monday, February 2, 2009

मासूम मुहब्बत

मासूम मुहब्बत का इतना सा फ़साना है
कागज की कश्ती है बारिश का ज़माना है
क्या शर्ते मुहब्बत है क्या शर्ते ज़माना है
आवाज़ भी ज़ख्मी है और गीत भी गाना है उस पार उतरने की उम्मीद बहुत कम है
कश्ती भी पुराणी है और तूफान को भी आना है
वो समझे न समझे अंदाज़ मुहब्बत के
एक इन्सान को आँखों से शेर सुनना है
भीगी सी अदा इश्क का अंदाज़ पुराना है
फिर आग का दरिया है फिर डूब के जाना है

3 comments:

  1. मनु जी ग़ज़ल के दूसरे शेर में तर्क-ऐ-मुहब्बत .... होना चाहिए वैसे बहुत दिन हुए याद नहीं है मुझे भी।

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  2. muhabbat main door nahi jaan btaya hai
    balki muhabbat ki sharton ka zikar kiya gya hai mainu duvara

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